औपनिवेशिक काल मे भारतीय अर्थव्यवस्था
औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का अर्थ
किसी दूसरे देश की अर्थव्यवस्था का उपयोग अपने हित के लिए प्रयोग करना औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था कहलाती है, भारत में औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की शुरुआत 1757 ई0 में प्लासी युद्ध से हुई, जो स्वतंत्रता प्राप्ति तक चलती रही।
प्लासी का युद्ध
अंग्रेज़ी शासन की स्थापना से पूर्व भारत की अपनी स्वतंत्र अर्थव्यवस्था थी, यद्यपि जनसामान्य की आजीविका और सरकार की आय का मुख्य स्रोत कृषि था, फिर भी देश की अर्थव्यवस्था में विभिन्न प्रकार की विनिर्माण गतिविधियाँ हो रही थीं।
औपनिवेशिक शासन का मुख्य उद्देश्य इंग्लैंड में तेज़ी से विकसित हो रहे औद्योगिक आधार के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को केवल एक कच्चा माल प्रदायक तक ही सीमित रखना था।
औपनिवेशिक शासकों ने कभी इस देश की राष्ट्रीय तथा प्रतिव्यक्ति आय का आकलन करने का भी ईमानदारी से कोई प्रयास नहीं किया। कुछ लोगों ने निजी स्तर पर आकलन किए, इन आकलनकर्त्ताओं में दादा भाई नौरोजी, विलियम दिग्बी, फिडले शिराज, डॉ.वी. के. आर. वी. राव तथा आर.सी. देसाई प्रमुख रहे हैं।
भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के बारे में सर्वप्रथम दादा भाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक ’द पावर्टी एण्ड अन ब्रिटिश रूल इन इण्डिया’ में उल्लेख किया।
पर उनके अनुमानों में बहुत विसंगतियाँ और आपसी मतभेद भी रहे हैं।
रमेशचन्द्र दत्त ने Economic history of india पुस्तक लीखी।
औपनिवेशिक काल के दौरान डॉ. राव द्वारा लगाए गए अनुमान बहुत महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।
औपनिवेशिक काल मे कृषि क्षेत्रक
ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत भारत मूलतः एक कृषि अर्थव्यवस्था ही बना रहा। देश की लगभग 85 प्रतिशत जनसंख्या, गाँवों में बसी थी।
जमींदारी व्यवस्था में तो कृषि कार्यों से होने वाले समस्त लाभ को जमींदार ही हड़प जाते थे, किसानों के पास कुछ नहीं बच पाता था।
जमींदारों की रुचि तो किसानों की आर्थिक दुर्दशा को अनदेखी कर, उनसे अधिक से अधिक लगान संग्रह करने तक सीमित रहती थी। इसी कारण, कृषक वर्ग को नितांत दुर्दशा और सामाजिक तनावों को झेलने को बाध्य होना पड़ा, साथ ही, प्रौद्योगिकी के निम्न स्तर सिंचाई सुविधाओं के अभाव और उर्वरकों का नगण्य प्रयोग भी कृषि उत्पादकता के स्तर को बहुत निम्न रखने के लिए उत्तरदायी था ।
देश के कुछ क्षेत्रों में कृषि के व्यावसायीकरण के कारण नकदी फसलों की उच्च उत्पादकता के प्रमाण भी मिलते हैं। किंतु उस उच्च उत्पादकता के लाभ भारतीय किसानों को नहीं मिल पाते थे। क्योंकि उन्हें तो खाद्यान्न की खेती के स्थान पर नकदी फसलों का उत्पादन करना पड़ता था, जिनका प्रयोग अंततः इंग्लैंड में लगे कारखानों में किया जाता था।
औपनिवेशिक काल मे औद्योगिक क्षेत्रक
अंग्रेजो का दोहरा उद्देश्य था, एक तो वे भारत को इंग्लैंड में विकसित हो रहे आधुनिक उद्योगों के लिए कच्चे माल का निर्यातक बनाना चाहते थे। दूसरे, वे उन उद्योगों के उत्पादो के लिए भारत को ही एक विशाल बाज़ार भी बनाना चाहते थे।
इस प्रकार, उन उद्योगों के प्रसार के सहारे वे ब्रिटेन के लिए अधिकतम लाभ सुनिश्चित करना चाहते थे। ऐसे आर्थिक परिदृश्य में भारतीय शिल्पकलाओं के पतन से जहाँ एक ओर भारी स्तर पर बेरोजगारी फैल रही थी, वहीं स्थानीय उत्पाद से वंचित भारतीय बाज़ारों में माँग का भी प्रसार हो रहा था। इस माँग को इंग्लैंड से सस्ते निर्मित उत्पादों के लाभपूर्ण आयात द्वारा पूरा किया गया।
यद्यपि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत में कुछ आधुनिक उद्योगों की स्थापना होने लगी थी, किंतु उनकी उन्नति बहुत धीमी ही रही । प्रारंभ में तो यह विकास केवल सूती वस्त्र और पटसन उद्योगों को आरंभ करने तक सीमित था। सूती कपड़ा मिलें प्राय: भारतीय उद्यमियों द्वारा ही लगाई गई थीं और ये देश के पश्चिमी क्षेत्रों (आज के महाराष्ट्र और गुजरात) में ही अवस्थित थीं। पटसन उद्योग की स्थापना का श्रेय विदेशियों को दिया जा सकता है। यह उद्योग केवल बंगाल प्रांत तक ही सीमित रहा। बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में लोहा और इस्पात उद्योग का विकास प्रारंभ हुआ। टाटा आयरन स्टील कंपनी (TISCO) की स्थापना 1907 में हुई, 1932 मे टाटा एयरलाइंस की स्थापना हुई, दूसरे विश्व युद्ध के बाद चीनी, सीमेंट, कागज़ आदि के कुछ कारखाने भी स्थापित हुए।
किंतु औद्यागिक क्षेत्रक की संवृद्धि दर बहुत ही कम थी और सकल घरेलू उत्पाद में इसका योगदान भी बहुत कम रहा।
औपनिवेशिक काल मे विदेशी व्यापार
व्यावहारिक रूप से इंग्लैंड ने भारत के आयात-निर्यात व्यापार पर अपना एकाधिकार जमाए रखा। भारत का आधे से अधिक व्यापार तो केवल इंग्लैंड तक सीमित रहा। शेष कुछ व्यापार चीन, श्रीलंका और ईरान से भी होने दिया जाता था। 1869 मे स्वेज नहर का व्यापार मार्ग खुलने से तो भारत के व्यापार पर अंग्रेजी नियंत्रण और भी सख्त हो गया।
औपनिवेशिक काल मे जनांकिकीय परिस्थिति
ब्रिटिश भारत की जनसंख्या के विस्तृत ब्यौरे सबसे पहले 1881 की जनगणना के तहत एकत्रित किए गए।
उस समय तक न तो भारत की जनसंख्या बहुत विशाल थी और न ही उसकी संवृद्धि दर बहुत अधिक थी, भारत की संवृद्धि दर 2% से भी कम थी।
उस समय साक्षरता दर तो 16% से भी कम ही थी। इसमें महिला साक्षरता दर नगण्य केवल 7% आँकी गई थी। जन स्वास्थ्य सेवाएँ तो अधिकांश को सुलभ ही नहीं थीं। जहाँ ये सुविधाएँ उपलब्ध थीं भी, वहाँ नितांत ही अपर्याप्त थीं। परिणामस्वरूप, जल और वायु के सहारे फैलने वाले संक्रमण रोगों का प्रकोप था, उनसे व्यापक जन-हानि होना एक आम बात थी, उस समय सकल मृत्यु दर बहुत ऊँची थी। विशेष रूप से शिशु मृत्यु दर 218 प्रति हजार थी। जीवन प्रत्याशा स्तर भी आज के 63 वर्ष की तुलना में केवल 32 वर्ष ही था। विश्वस्त आँकड़ों के अभाव में यह कह पाना कठिन है कि उस समय गरीबी का प्रसार कितना था । इसमें कोई संदेह नहीं है कि औपनिवेशिक शासन के दौरान भारत में अत्यधिक गरीबी व्याप्त थी।
औपनिवेशिक काल मे आधारभुत संरचना का विकास
औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत देश में रेलों,पत्तनों, जल परिवहन व डाक तार आदि का विकास हुआ। इसका ध्येय जनसामान्य को अधिक सुविधाएँ प्रदान करना नहीं था। ये कार्य तो औपनिवेशिक हित साधन के ध्येय से किए गए थे। अंग्रेजी शासन से पहले बनी सड़कें आधुनिक यातायात साधनों के लिए उपयुक्त नहीं थीं। जो सड़कें उन्होंने बनाई उनका ध्येय भी देश के भीतर उनकी सेनाओं के आवागमन की सुविधा तथा देश के भीतरी भागों से कच्चे माल को निकटतम रेलवे स्टेशन या पत्तन तक पहुँचाने में सहायता करना मात्र था। इस प्रकार माल को इंग्लैंड या अन्य लाभकारी बाजारों तक पहुँचाना आसान हो जाता था।
अंग्रेजों ने 1853 में भारत में रेलों का आरंभ किया। यही उनका सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान माना जाता है। रेलों ने भारत की अर्थव्यवस्था की संरचना को दो महत्त्वपूर्ण तरीकों से प्रभावित किया। एक तो इससे लोगों को भूक्षेत्रीय एवं सांस्कृतिक व्यवधानों को कम कर आसानी से लंबी यात्राएँ करने के अवसर प्राप्त हुए, तो दूसरी ओर भारतीय कृषि के व्यावसायीकरण को बढ़ावा मिला किंतु इस व्यावसायीकरण का भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्थाओं के आत्मनिर्भरता के स्वरूप पर विपरीत प्रभाव
पड़ा। भारत के निर्यात में निःसंदेह विस्तार हुआ, परंतु इसके लाभ भारतवासियों को मुश्किल से ही प्राप्त हुए।
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